01 दोहा
रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराजु।
रचहु प्रपञ्चहि पञ्च मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥294॥
मूल
रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराजु।
रचहु प्रपञ्चहि पञ्च मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥294॥
भावार्थ
देवराज इन्द्र सोच में भरकर कहने लगे कि श्री रामचन्द्रजी तो स्नेह और सङ्कोच के वश में हैं, इसलिए सब लोग मिलकर कुछ प्रपञ्च (माया) रचो, नहीं तो काम बिगडा (ही समझो)॥294॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥1॥
मूल
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥1॥
भावार्थ
देवताओं ने सरस्वती का स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति) की और कहा- हे देवी! देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीजिए। अपनी माया रचकर भरतजी की बुद्धि को फेर दीजिए और छल की छाया कर देवताओं के कुल का पालन (रक्षा) कीजिए॥1॥
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड जानी॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥2॥
मूल
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड जानी॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥2॥
भावार्थ
देवताओं की विनती सुनकर और देवताओं को स्वार्थ के वश होने से मूर्ख जानकर बुद्धिमती सरस्वतीजी बोलीं- मुझसे कह रहे हो कि भरतजी की मति पलट दो! हजार नेत्रों से भी तुमको सुमेरू नहीं सूझ पडता!॥2॥
बिधि हरि हर माया बडि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चन्दिनि कर कि चण्डकर चोरी॥3॥
मूल
बिधि हरि हर माया बडि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चन्दिनि कर कि चण्डकर चोरी॥3॥
भावार्थ
ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माया बडी प्रबल है! किन्तु वह भी भरतजी की बुद्धि की ओर ताक नहीं सकती। उस बुद्धि को, तुम मुझसे कह रहे हो कि, भोली कर दो (भुलावे में डाल दो)! अरे! चाँदनी कहीं प्रचण्ड किरण वाले सूर्य को चुरा सकती है?॥3॥
भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥4॥
मूल
भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥4॥
भावार्थ
भरतजी के हृदय में श्री सीता-रामजी का निवास है। जहाँ सूर्य का प्रकाश है, वहाँ कहीं अँधेरा रह सकता है? ऐसा कहकर सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को चली गईं। देवता ऐसे व्याकुल हुए जैसे रात्रि में चकवा व्याकुल होता है॥4॥