293

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें सम्मत सर्ब हित करिअ प्रेमु पहिचानि॥293॥

मूल

राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें सम्मत सर्ब हित करिअ प्रेमु पहिचानि॥293॥

भावार्थ

अतएव मुझे पराधीन जानकर (मुझसे न पूछकर) श्री रामचन्द्रजी के रुख (रुचि), धर्म और (सत्य के) व्रत को रखते हुए, जो सबके सम्मत और सबके लिए हितकारी हो आप सबका प्रेम पहचानकर वही कीजिए॥293॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥
सुगम अगम मृदु मञ्जु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥1॥

मूल

भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥
सुगम अगम मृदु मञ्जु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥1॥

भावार्थ

भरतजी के वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाज सहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे। भरतजी के वचन सुगम और अगम, सुन्दर, कोमल और कठोर हैं। उनमें अक्षर थोडे हैं, परन्तु अर्थ अत्यन्त अपार भरा हुआ है॥1॥

ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥
भूप भरतू मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥2॥

मूल

ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥
भूप भरतू मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥2॥

भावार्थ

जैसे मुख (का प्रतिबिम्ब) दर्पण में दिखता है और दर्पण अपने हाथ में है, फिर भी वह (मुख का प्रतिबिम्ब) पकडा नहीं जाता, इसी प्रकार भरतजी की यह अद्भुत वाणी भी पकड में नहीं आती (शब्दों से उसका आशय समझ में नहीं आता)। (किसी से कुछ उत्तर देते नहीं बना) तब राजा जनकजी, भरतजी तथा मुनि वशिष्ठजी समाज के साथ वहाँ गए, जहाँ देवता रूपी कुमुदों को खिलाने वाले (सुख देने वाले) चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी थे॥2॥

सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥3॥

मूल

सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥3॥

भावार्थ

यह समाचार सुनकर सब लोग सोच से व्याकुल हो गए, जैसे नए (पहली वर्षा के) जल के संयोग से मछलियाँ व्याकुल होती हैं। देवताओं ने पहले कुलगुरु वशिष्ठजी की (प्रेमविह्वल) दशा देखी, फिर विदेहजी के विशेष स्नेह को देखा,॥3॥

राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥
सब कोउ राम प्रेममय पेखा। भए अलेख सोच बस लेखा॥4॥

मूल

राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥
सब कोउ राम प्रेममय पेखा। भए अलेख सोच बस लेखा॥4॥

भावार्थ

और तब श्री रामभक्ति से ओतप्रोत भरतजी को देखा। इन सबको देखकर स्वार्थी देवता घबडाकर हृदय में हार मान गए (निराश हो गए)। उन्होन्ने सब किसी को श्री राम प्रेम में सराबोर देखा। इससे देवता इतने सोच के वश हो गए कि जिसका कोई हिसाब नहीं॥4॥