01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु स्नेहु।
सङ्कट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥292॥
मूल
राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु स्नेहु।
सङ्कट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥292॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी सत्यव्रती और धर्मपरायण हैं, सबका शील और स्नेह रखने वाले हैं, इसीलिए वे सङ्कोचवश सङ्कट सह रहे हैं, अब तुम जो आज्ञा दो, वह उनसे कही जाए॥292॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥
मूल
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥
भावार्थ
भरतजी यह सुनकर पुलकित शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बडा भारी धीरज धरकर बोले- हे प्रभो! आप हमारे पिता के समान प्रिय और पूज्य हैं और कुल गुरु श्री वशिष्ठजी के समान हितैषी तो माता-पिता भी नहीं है॥1॥
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अम्बुनिधि आपुनु आजू॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥2॥
मूल
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अम्बुनिधि आपुनु आजू॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥2॥
भावार्थ
विश्वामित्रजी आदि मुनियों और मन्त्रियों का समाज है और आज के दिन ज्ञान के समुद्र आप भी उपस्थित हैं। हे स्वामी! मुझे अपना बच्चा, सेवक और आज्ञानुसार चलने वाला समझकर शिक्षा दीजिए॥2॥
एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥
छोटे बदन कहउँ बडि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥3॥
मूल
एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥
छोटे बदन कहउँ बडि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥3॥
भावार्थ
इस समाज और (पुण्य) स्थल में आप (जैसे ज्ञानी और पूज्य) का पूछना! इस पर यदि मैं मौन रहता हूँ तो मलिन समझा जाऊँगा और बोलना पागलपन होगा तथापि मैं छोटे मुँह बडी बात कहता हूँ। हे तात! विधाता को प्रतिकूल जानकर क्षमा कीजिएगा॥3॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अन्ध प्रेमहि न प्रबोधू॥4॥
मूल
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अन्ध प्रेमहि न प्रबोधू॥4॥
भावार्थ
वेद, शास्त्र और पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है कि सेवा धर्म बडा कठिन है। स्वामी धर्म में (स्वामी के प्रति कर्तव्य पालन में) और स्वार्थ में विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते) वैर अन्धा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता (मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनों में ही भूल होने का भय है)॥4॥