01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि॥286॥
मूल
सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि॥286॥
भावार्थ
पिता-माता के प्रेम के मारे सीताजी ऐसी विकल हो गईं कि अपने को सँभाल न सकीं। (परन्तु परम धैर्यवती) पृथ्वी की कन्या सीताजी ने समय और सुन्दर धर्म का विचार कर धैर्य धारण किया॥286॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥
पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥1॥
मूल
तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥
पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥1॥
भावार्थ
सीताजी को तपस्विनी वेष में देखकर जनकजी को विशेष प्रेम और सन्तोष हुआ। (उन्होन्ने कहा-) बेटी! तूने दोनों कुल पवित्र कर दिए। तेरे निर्मल यश से सारा जगत उज्ज्वल हो रहा है, ऐसा सब कोई कहते हैं॥1॥
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अण्ड करोरी॥
गङ्ग अवनि थल तीनि बडेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे॥2॥
मूल
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अण्ड करोरी॥
गङ्ग अवनि थल तीनि बडेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे॥2॥
भावार्थ
तेरी कीर्ति रूपी नदी देवनदी गङ्गाजी को भी जीतकर (जो एक ही ब्रह्माण्ड में बहती है) करोडों ब्रह्माण्डों में बह चली है। गङ्गाजी ने तो पृथ्वी पर तीन ही स्थानों (हरिद्वार, प्रयागराज और गङ्गासागर) को बडा (तीर्थ) बनाया है। पर तेरी इस कीर्ति नदी ने तो अनेकों सन्त समाज रूपी तीर्थ स्थान बना दिए हैं॥2॥
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी॥
पुनि पितु मातु लीन्हि उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई॥3॥
मूल
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी॥
पुनि पितु मातु लीन्हि उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई॥3॥
भावार्थ
पिता जनकजी ने तो स्नेह से सच्ची सुन्दर वाणी कही, परन्तु अपनी बडाई सुनकर सीताजी मानो सङ्कोच में समा गईं। पिता-माता ने उन्हें फिर हृदय से लगा लिया और हितभरी सुन्दर सीख और आशीष दिया॥3॥
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ॥4॥
मूल
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ॥4॥
भावार्थ
सीताजी कुछ कहती नहीं हैं, परन्तु सकुचा रही हैं कि रात में (सासुओं की सेवा छोडकर) यहाँ रहना अच्छा नहीं है। रानी सुनयनाजी ने जानकीजी का रुख देखकर (उनके मन की बात समझकर) राजा जनकजी को जना दिया। तब दोनों अपने हृदयों में सीताजी के शील और स्वभाव की सराहना करने लगे॥4॥