285

01 दोहा

अस कहि पग परि प्रेम अति सिय हित बिनय सुनाइ।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ॥285॥

मूल

अस कहि पग परि प्रेम अति सिय हित बिनय सुनाइ।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ॥285॥

भावार्थ

ऐसा कहकर बडे प्रेम से पैरों पडकर सीताजी (को साथ भेजने) के लिए विनती करके और सुन्दर आज्ञा पाकर तब सीताजी समेत सीताजी की माता डेरे को चलीं॥285॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥1॥

मूल

प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥1॥

भावार्थ

जानकीजी अपने प्यारे कुटुम्बियों से- जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं। जानकीजी को तपस्विनी के वेष में देखकर सभी शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गए॥1॥

जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुनि पावन प्रेम प्रान की॥2॥

मूल

जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुनि पावन प्रेम प्रान की॥2॥

भावार्थ

जनकजी श्री रामजी के गुरु वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर डेरे को चले और आकर उन्होन्ने सीताजी को देखा। जनकजी ने अपने पवित्र प्रेम और प्राणों की पाहुनी जानकीजी को हृदय से लगा लिया॥2॥

उर उमगेउ अम्बुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू॥
सिय सनेह बटु बाढत जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा॥3॥

मूल

उर उमगेउ अम्बुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू॥
सिय सनेह बटु बाढत जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा॥3॥

भावार्थ

उनके हृदय में (वात्सल्य) प्रेम का समुद्र उमड पडा। राजा का मन मानो प्रयाग हो गया। उस समुद्र के अन्दर उन्होन्ने (आदि शक्ति) सीताजी के (अलौकिक) स्नेह रूपी अक्षयवट को बढते हुए देखा। उस (सीताजी के प्रेम रूपी वट) पर श्री रामजी का प्रेम रूपी बालक (बाल रूप धारी भगवान) सुशोभित हो रहा है॥3॥

चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूडत लहेउ बाल अवलम्बनु॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥4॥

मूल

चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूडत लहेउ बाल अवलम्बनु॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥4॥

भावार्थ

जनकजी का ज्ञान रूपी चिरञ्जीवी (मार्कण्डेय) मुनि व्याकुल होकर डूबते-डूबते मानो उस श्री राम प्रेम रूपी बालक का सहारा पाकर बच गया। वस्तुतः (ज्ञानिशिरोमणि) विदेहराज की बुद्धि मोह में मग्न नहीं है। यह तो श्री सीता-रामजी के प्रेम की महिमा है (जिसने उन जैसे महान ज्ञानी के ज्ञान को भी विकल कर दिया)॥4॥