01 दोहा
सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार॥279॥
मूल
सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार॥279॥
भावार्थ
श्री रामजी के गुरु वशिष्ठजी ने सबके पास बोझे भर-भरकर आदरपूर्वक भेजे। तब वे पितर-देवता, अतिथि और गुरु की पूजा करके फलाहार करने लगे॥279॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी॥
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥1॥
मूल
एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी॥
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥1॥
भावार्थ
इस प्रकार चार दिन बीत गए। श्री रामचन्द्रजी को देखकर सभी नर-नारी सुखी हैं। दोनों समाजों के मन में ऐसी इच्छा है कि श्री सीता-रामजी के बिना लौटना अच्छा नहीं है॥1॥
सीता राम सङ्ग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू॥
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥2॥
मूल
सीता राम सङ्ग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू॥
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥2॥
भावार्थ
श्री सीता-रामजी के साथ वन में रहना करोडों देवलोकों के (निवास के) समान सुखदायक है। श्री लक्ष्मणजी, श्री रामजी और श्री जानकीजी को छोडकर जिसको घर अच्छा लगे, विधाता उसके विपरीत हैं॥2॥
दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही॥
मन्दाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मङ्गल माला॥3॥
मूल
दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही॥
मन्दाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मङ्गल माला॥3॥
भावार्थ
जब दैव सबके अनुकूल हो, तभी श्री रामजी के पास वन में निवास हो सकता है। मन्दाकिनीजी का तीनों समय स्नान और आनन्द तथा मङ्गलों की माला (समूह) रूप श्री राम का दर्शन,॥3॥
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कन्द मूल फल॥
सुख समेत सम्बत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता॥4॥
मूल
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कन्द मूल फल॥
सुख समेत सम्बत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता॥4॥
भावार्थ
श्री रामजी के पर्वत (कामदनाथ), वन और तपस्वियों के स्थानों में घूमना और अमृत के समान कन्द, मूल, फलों का भोजन। चौदह वर्ष सुख के साथ पल के समान हो जाएँगे (बीत जाएँगे), जाते हुए जान ही न पडेङ्गे॥4॥