01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रम सागर सान्त रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु॥275॥
मूल
आश्रम सागर सान्त रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु॥275॥
भावार्थ
श्री रामजी का आश्रम शान्त रस रूपी पवित्र जल से परिपूर्ण समुद्र है। जनकजी की सेना (समाज) मानो करुणा (करुण रस) की नदी है, जिसे श्री रघुनाथजी (उस आश्रम रूपी शान्त रस के समुद्र में मिलाने के लिए) लिए जा रहे हैं॥275॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे॥
सोच उसास समीर तरङ्गा। धीरज तट तरुबर कर भङ्गा॥1॥
मूल
बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे॥
सोच उसास समीर तरङ्गा। धीरज तट तरुबर कर भङ्गा॥1॥
भावार्थ
यह करुणा की नदी (इतनी बढी हुई है कि) ज्ञान-वैराग्य रूपी किनारों को डुबाती जाती है। शोक भरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी में मिलते हैं और सोच की लम्बी साँसें (आहें) ही वायु के झकोरों से उठने वाली तरङ्गें हैं, जो धैर्य रूपी किनारे के उत्तम वृक्षों को तोड रही हैं॥1॥
बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा॥
केवट बुध बिद्या बडि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा॥2॥
मूल
बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा॥
केवट बुध बिद्या बडि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा॥2॥
भावार्थ
भयानक विषाद (शोक) ही उस नदी की तेज धारा है। भय और भ्रम (मोह) ही उसके असङ्ख्य भँवर और चक्र हैं। विद्वान मल्लाह हैं, विद्या ही बडी नाव है, परन्तु वे उसे खे नहीं सकते हैं, (उस विद्या का उपयोग नहीं कर सकते हैं) किसी को उसकी अटकल ही नहीं आती है॥2॥
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे॥
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अम्बुधि अकुलाई॥3॥
मूल
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे॥
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अम्बुधि अकुलाई॥3॥
भावार्थ
वन में विचरने वाले बेचारे कोल-किरात ही यात्री हैं, जो उस नदी को देखकर हृदय में हारकर थक गए हैं। यह करुणा नदी जब आश्रम-समुद्र में जाकर मिली, तो मानो वह समुद्र अकुला उठा (खौल उठा)॥3॥
सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा॥
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिन्धु अवगाही॥4॥
मूल
सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा॥
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिन्धु अवगाही॥4॥
भावार्थ
दोनों राज समाज शोक से व्याकुल हो गए। किसी को न ज्ञान रहा, न धीरज और न लाज ही रही। राजा दशरथजी के रूप, गुण और शील की सराहना करते हुए सब रो रहे हैं और शोक समुद्र में डुबकी लगा रहे हैं॥4॥
03 छन्द
अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की॥
मूल
अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की॥
भावार्थ
शोक समुद्र में डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री-पुरुष महान व्याकुल होकर सोच (चिन्ता) कर रहे हैं। वे सब विधाता को दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल विधाता ने यह क्या किया? तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगी और मुनिगणों में कोई भी समर्थ नहीं है, जो उस समय विदेह (जनकराज) की दशा देखकर प्रेम की नदी को पार कर सके (प्रेम में मग्न हुए बिना रह सके)।