272

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनन्दनहि सकोचु बड सोच बिबस सुरराजु॥272॥

मूल

सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनन्दनहि सकोचु बड सोच बिबस सुरराजु॥272॥

भावार्थ

जनकजी का आगमन सुनकर अयोध्या का सारा समाज हर्षित हो गया। श्री रामजी को बडा सङ्कोच हुआ और देवराज इन्द्र तो विशेष रूप से सोच के वश में हो गए॥272॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई॥
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥1॥

मूल

गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई॥
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥1॥

भावार्थ

कुटिल कैकेयी मन ही मन ग्लानि (पश्चाताप) से गली जाती है। किससे कहे और किसको दोष दे? और सब नर-नारी मन में ऐसा विचार कर प्रसन्न हो रहे हैं कि (अच्छा हुआ, जनकजी के आने से) चार (कुछ) दिन और रहना हो गया॥1॥

एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ॥
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी॥2॥

मूल

एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ॥
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी॥2॥

भावार्थ

इस तरह वह दिन भी बीत गया। दूसरे दिन प्रातःकाल सब कोई स्नान करने लगे। स्नान करके सब नर-नारी गणेशजी, गौरीजी, महादेवजी और सूर्य भगवान की पूजा करते हैं॥2॥

रमा रमन पद बन्दि बहोरी। बिनवहिं अञ्जुलि अञ्चल जोरी॥
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी॥3॥

मूल

रमा रमन पद बन्दि बहोरी। बिनवहिं अञ्जुलि अञ्चल जोरी॥
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी॥3॥

भावार्थ

फिर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के चरणों की वन्दना करके, दोनों हाथ जोडकर, आँचल पसारकर विनती करते हैं कि श्री रामजी राजा हों, जानकीजी रानी हों तथा राजधानी अयोध्या आनन्द की सीमा होकर-॥3॥

सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा॥
एहि सुख सुधाँ सीञ्चि सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू॥4॥

मूल

सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा॥
एहि सुख सुधाँ सीञ्चि सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू॥4॥

भावार्थ

फिर समाज सहित सुखपूर्वक बसे और श्री रामजी भरतजी को युवराज बनावें। हे देव! इस सुख रूपी अमृत से सीञ्चकर सब किसी को जगत में जीने का लाभ दीजिए॥4॥