01 दोहा
जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रङ्कु भल पोच॥267॥
मूल
जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रङ्कु भल पोच॥267॥
भावार्थ
उस वृक्ष (कल्पवृक्ष) को पहचानकर जो उसके पास जाए, तो उसकी छाया ही सारी चिन्ताओं का नाश करने वाली है। राजा-रङ्क, भले-बुरे, जगत में सभी उससे माँगते ही मनचाही वस्तु पाते हैं॥267॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन सन्देहू॥
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥1॥
मूल
लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन सन्देहू॥
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥1॥
भावार्थ
गुरु और स्वामी का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा क्षोभ मिट गया, मन में कुछ भी सन्देह नहीं रहा। हे दया की खान! अब वही कीजिए जिससे दास के लिए प्रभु के चित्त में क्षोभ (किसी प्रकार का विचार) न हो॥1॥
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची॥
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई॥2॥
मूल
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची॥
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई॥2॥
भावार्थ
जो सेवक स्वामी को सङ्कोच में डालकर अपना भला चाहता है, उसकी बुद्धि नीच है। सेवक का हित तो इसी में है कि वह समस्त सुखों और लोभों को छोडकर स्वामी की सेवा ही करे॥2॥
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका॥
यह स्वारथ परमारथ सारू। सकल सुकृत फल सुगति सिङ्गारू॥3॥
मूल
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका॥
यह स्वारथ परमारथ सारू। सकल सुकृत फल सुगति सिङ्गारू॥3॥
भावार्थ
हे नाथ! आपके लौटने में सभी का स्वार्थ है और आपकी आज्ञा पालन करने में करोडों प्रकार से कल्याण है। यही स्वार्थ और परमार्थ का सार (निचोड) है, समस्त पुण्यों का फल और सम्पूर्ण शुभ गतियों का श्रृङ्गार है॥3॥
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना॥4॥
मूल
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना॥4॥
भावार्थ
हे देव! आप मेरी एक विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिए। राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लाई गई है, जो प्रभु का मन माने तो उसे सफल कीजिए (उसका उपयोग कीजिए)॥4॥