01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड भागु।
सकल सुमङ्गल मूल जग भरत चरन अनुरागु॥265॥
मूल
सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड भागु।
सकल सुमङ्गल मूल जग भरत चरन अनुरागु॥265॥
भावार्थ
देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा- अच्छा विचार किया, तुम्हारे बडे भाग्य हैं। भरतजी के चरणों का प्रेम जगत में समस्त शुभ मङ्गलों का मूल है॥265॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई॥
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥1॥
मूल
सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई॥
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥1॥
भावार्थ
सीतानाथ श्री रामजी के सेवक की सेवा सैकडों कामधेनुओं के समान सुन्दर है। तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच छोड दो। विधाता ने बात बना दी॥1॥
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सजह सुभायँ बिबस रघुराऊ॥
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं॥2॥
मूल
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सजह सुभायँ बिबस रघुराऊ॥
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं॥2॥
भावार्थ
हे देवराज! भरतजी का प्रभाव तो देखो। श्री रघुनाथजी सहज स्वभाव से ही उनके पूर्णरूप से वश में हैं। हे देवताओं ! भरतजी को श्री रामचन्द्रजी की परछाईं (परछाईं की भाँति उनका अनुसरण करने वाला) जानकर मन स्थिर करो, डर की बात नहीं है॥2॥
सुनि सुरगुर सुर सम्मत सोचू। अन्तरजामी प्रभुहि सकोचू॥
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना॥3॥
मूल
सुनि सुरगुर सुर सम्मत सोचू। अन्तरजामी प्रभुहि सकोचू॥
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना॥3॥
भावार्थ
देवगुरु बृहस्पतिजी और देवताओं की सम्मति (आपस का विचार) और उनका सोच सुनकर अन्तर्यामी प्रभु श्री रामजी को सङ्कोच हुआ। भरतजी ने अपने मन में सब बोझा अपने ही सिर जाना और वे हृदय में करोडों (अनेकों) प्रकार के अनुमान (विचार) करने लगे॥3॥
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका॥
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा॥4॥
मूल
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका॥
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा॥4॥
भावार्थ
सब तरह से विचार करके अन्त में उन्होन्ने मन में यही निश्चय किया कि श्री रामजी की आज्ञा में ही अपना कल्याण है। उन्होन्ने अपना प्रण छोडकर मेरा प्रण रखा। यह कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया (अर्थात अत्यन्त ही अनुग्रह और स्नेह किया)॥4॥