01 दोहा
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसन्ध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु॥264॥
मूल
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसन्ध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु॥264॥
भावार्थ
तुम मन को प्रसन्न कर और सङ्कोच को त्याग कर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूँ। सत्य प्रतिज्ञ रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया॥264॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू॥
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं॥1॥
मूल
सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू॥
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं॥1॥
भावार्थ
देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगडना ही चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन ही मन श्री रामजी की शरण गए॥1॥
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं॥
सुधि करि अम्बरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा॥2॥
मूल
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं॥
सुधि करि अम्बरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा॥2॥
भावार्थ
फिर वे विचार करके आपस में कहने लगे कि श्री रघुनाथजी तो भक्त की भक्ति के वश हैं। अम्बरीष और दुर्वासा की (घटना) याद करके तो देवता और इन्द्र बिल्कुल ही निराश हो गए॥2॥
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा॥
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा॥3॥
मूल
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा॥
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा॥3॥
भावार्थ
पहले देवताओं ने बहुत समय तक दुःख सहे। तब भक्त प्रह्लाद ने ही नृसिंह भगवान को प्रकट किया था। सब देवता परस्पर कानों से लग-लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब (इस बार) देवताओं का काम भरतजी के हाथ है॥3॥
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा॥
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि॥4॥
मूल
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा॥
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि॥4॥
भावार्थ
हे देवताओं! और कोई उपाय नहीं दिखाई देता। श्री रामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा को मानते हैं (अर्थात उनके भक्त की कोई सेवा करता है, तो उस पर बहुत प्रसन्न होते हैं)। अतएव अपने गुण और शील से श्री रामजी को वश में करने वाले भरतजी का ही सब लोग अपने-अपने हृदय में प्रेम सहित स्मरण करो॥4॥