263

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिटिहहिं पाप प्रपञ्च सब अखिल अमङ्गल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥263॥

मूल

मिटिहहिं पाप प्रपञ्च सब अखिल अमङ्गल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥263॥

भावार्थ

हे भरत! तुम्हारा नाम स्मरण करते ही सब पाप, प्रपञ्च (अज्ञान) और समस्त अमङ्गलों के समूह मिट जाएँगे तथा इस लोक में सुन्दर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा॥263॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी॥
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ॥1॥

मूल

कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी॥
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ॥1॥

भावार्थ

हे भरत! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूँ, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है। हे तात! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाए नहीं छिपते॥1॥

मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥2॥

मूल

मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥2॥

भावार्थ

पक्षी और पशु मुनियों के पास (बेधडक) चले जाते हैं, पर हिंसा करने वाले बधिकों को देखते ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रु को पशु-पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्य शरीर तो गुण और ज्ञान का भण्डार ही है॥2॥

तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमञ्जस जीकें॥
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी॥3॥

मूल

तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमञ्जस जीकें॥
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी॥3॥

भावार्थ

हे तात! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। क्या करूँ? जी में बडा असमञ्जस (दुविधा) है। राजा ने मुझे त्याग कर सत्य को रखा और प्रेम-प्रण के लिए शरीर छोड दिया॥3॥

तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू॥
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा॥4॥

मूल

तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू॥
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा॥4॥

भावार्थ

उनके वचन को मेटते मन में सोच होता है। उससे भी बढकर तुम्हारा सङ्कोच है। उस पर भी गुरुजी ने मुझे आज्ञा दी है, इसलिए अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वही करना चाहता हूँ॥4॥