259

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिन्धु प्रिय बन्धु सन कहहु हृदय कै बात॥259॥

मूल

तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिन्धु प्रिय बन्धु सन कहहु हृदय कै बात॥259॥

भावार्थ

तब मुनि भरतजी से बोले- हे तात! सब सङ्कोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई से अपने हृदय की बात कहो॥259॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥
लखि अपनें सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥1॥

मूल

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥
लखि अपनें सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥1॥

भावार्थ

मुनि के वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर गुरु तथा स्वामी को भरपेट अपने अनुकूल जानकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं सकते। वे विचार करने लगे॥1॥

पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढे। नीरज नयन नेह जल बाढे॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा॥2॥

मूल

पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढे। नीरज नयन नेह जल बाढे॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा॥2॥

भावार्थ

शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खडे हो गए। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ आ गई। (वे बोले-) मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया (जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होन्ने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ?॥2॥

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥3॥

मूल

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥3॥

भावार्थ

अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैन्ने खेल में भी कभी उनकी रीस (अप्रसन्नता) नहीं देखी॥3॥

सिसुपन तें परिहरेउँ न सङ्गू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भङ्गू॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहूँ खेल जितावहिं मोही॥4॥

मूल

सिसुपन तें परिहरेउँ न सङ्गू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भङ्गू॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहूँ खेल जितावहिं मोही॥4॥

भावार्थ

बचपन में ही मैन्ने उनका साथ नहीं छोडा और उन्होन्ने भी मेरे मन को कभी नहीं तोडा (मेरे मन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया)। मैन्ने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भलीभाँति देखा है (अनुभव किया है)। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं॥4॥