01 दोहा
भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥258॥
मूल
भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥258॥
भावार्थ
पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड (सार) निकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार) कीजिए॥258॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदयँ आनन्दु बिसेषी॥
भरतहि धरम धुरन्धर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥1॥
मूल
गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदयँ आनन्दु बिसेषी॥
भरतहि धरम धुरन्धर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥1॥
भावार्थ
भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्री रामचन्द्रजी के हृदय में विशेष आनन्द हुआ। भरतजी को धर्मधुरन्धर और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर-॥1॥
बोले गुरु आयस अनुकूला। बचन मञ्जु मृदु मङ्गलमूला॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई॥2॥
मूल
बोले गुरु आयस अनुकूला। बचन मञ्जु मृदु मङ्गलमूला॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई॥2॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी गुरु की आज्ञा अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याण के मूल वचन बोले- हे नाथ! आपकी सौगन्ध और पिताजी के चरणों की दुहाई है (मैं सत्य कहता हूँ कि) विश्वभर में भरत के समान कोई भाई हुआ ही नहीं॥2॥
जे गुर पद अम्बुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बडभागी॥
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥3॥
मूल
जे गुर पद अम्बुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बडभागी॥
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥3॥
भावार्थ
जो लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में (लौकिक दृष्टि से) भी और वेद में (परमार्थिक दृष्टि से) भी बडभागी होतें हैं! (फिर) जिस पर आप (गुरु) का ऐसा स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है?॥3॥
लखि लघु बन्धु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बडाई॥
भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥4॥
मूल
लखि लघु बन्धु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बडाई॥
भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥4॥
भावार्थ
छोटा भाई जानकर भरत के मुँह पर उसकी बडाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है। (फिर भी मैं तो यही कहूँगा कि) भरत जो कुछ कहें, वही करने में भलाई है। ऐसा कहकर श्री रामचन्द्रजी चुप हो रहे॥4॥