254

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि सम्मत सोइ॥254॥

मूल

राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि सम्मत सोइ॥254॥

भावार्थ

अतएव श्री रामजी की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सबका हित होगा। (इस तत्त्व और रहस्य को समझकर) अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वही मिलकर करो॥254॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मङ्गल मोद मूल मग एकू॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥1॥

मूल

सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मङ्गल मोद मूल मग एकू॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी का राज्याभिषेक सबके लिए सुखदायक है। मङ्गल और आनन्द का मूल यही एक मार्ग है। (अब) श्री रघुनाथजी अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही उपाय किया जाए॥1॥

सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी॥
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥2॥

मूल

सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी॥
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥2॥

भावार्थ

मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी की नीति, परमार्थ और स्वार्थ (लौकिक हित) में सनी हुई वाणी सबने आदरपूर्वक सुनी। पर किसी को कोई उत्तर नहीं आता, सब लोग भोले (विचार शक्ति से रहित) हो गए। तब भरत ने सिर नवाकर हाथ जोडे॥2॥

भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बडेरे॥
जनम हेतु सब कहँ कितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता॥3॥

मूल

भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बडेरे॥
जनम हेतु सब कहँ कितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता॥3॥

भावार्थ

(और कहा-) सूर्यवंश में एक से एक अधिक बडे बहुत से राजा हो गए हैं। सभी के जन्म के कारण पिता-माता होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मों को (कर्मों का फल) विधाता देते हैं॥3॥

दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेङ्की। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥4॥

मूल

दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेङ्की। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥4॥

भावार्थ

आपकी आशीष ही एक ऐसी है, जो दुःखों का दमन करके, समस्त कल्याणों को सज देती है, यह जगत जानता है। हे स्वामी! आप ही हैं, जिन्होन्ने विधाता की गति (विधान) को भी रोक दिया। आपने जो टेक टेक दी (जो निश्चय कर दिया) उसे कौन टाल सकता है?॥4॥