249

01 दोहा

सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुञ्जत भृङ्ग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहङ्ग बहुरङ्ग॥249॥

मूल

सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुञ्जत भृङ्ग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहङ्ग बहुरङ्ग॥249॥

भावार्थ

तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुञ्जार कर रहे हैं और बहुत रङ्गों के पक्षी और पशु वन में वैररहित होकर विहार कर रहे हैं॥249॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुन्दर स्वादु सुधा सी॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कन्द मूल फल अङ्कुर जूरी॥1॥

मूल

कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुन्दर स्वादु सुधा सी॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कन्द मूल फल अङ्कुर जूरी॥1॥

भावार्थ

कोल, किरात और भील आदि वन के रहने वाले लोग पवित्र, सुन्दर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुन्दर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर तथा कन्द, मूल, फल और अङ्कुर आदि की जूडियों (अँटियों) को॥1॥

सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥2॥

मूल

सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥2॥

भावार्थ

सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजों के अलग-अलग स्वाद, भेद (प्रकार), गुण और नाम बता-बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा देने में श्री रामजी की दुहाई देते हैं॥2॥

कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥3॥

मूल

कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥3॥

भावार्थ

प्रेम में मग्न हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं (अर्थात आप साधु हैं, आप हमारे प्रेम को देखिए, दाम देकर या वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न कीजिए)। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं। श्री रामजी की कृपा से ही हमने आप लोगों के दर्शन पाए हैं॥3॥

हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥4॥

मूल

हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥4॥

भावार्थ

हम लोगों को आपके दर्शन बडे ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमि के लिए गङ्गाजी की धारा दुर्लभ है! (देखिए) कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने निषाद पर कैसी कृपा की है। जैसे राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजा को भी होना चाहिए॥4॥