247

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोरु भएँ रघुनन्दनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥247॥

मूल

भोरु भएँ रघुनन्दनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥247॥

भावार्थ

दूसरे दिन सबेरा होने पर मुनि वशिष्ठजी ने श्री रघुनाथजी को जो-जो आज्ञा दी, वह सब कार्य प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने श्रद्धा-भक्ति सहित आदर के साथ किया॥247॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमङ्गल मूला॥1॥

मूल

करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमङ्गल मूला॥1॥

भावार्थ

वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पाप रूपी अन्धकार के नष्ट करने वाले सूर्यरूप श्री रामचन्द्रजी शुद्ध हुए! जिनका नाम पाप रूपी रूई के (तुरन्त जला डालने के) लिए अग्नि है और जिनका स्मरण मात्र समस्त शुभ मङ्गलों का मूल है,॥1॥

सुद्ध सो भयउ साधु सम्मत अस। तीरथ आवाहन सुसरिजस॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सनराम पिरीते॥2॥

मूल

सुद्ध सो भयउ साधु सम्मत अस। तीरथ आवाहन सुसरिजस॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सनराम पिरीते॥2॥

भावार्थ

वे (नित्य शुद्ध-बुद्ध) भगवान श्री रामजी शुद्ध हुए! साधुओं की ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना वैसे ही है जैसा तीर्थों के आवाहन से गङ्गाजी शुद्ध होती हैं! (गङ्गाजी तो स्वभाव से ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता है, उलटे वे ही गङ्गाजी के सम्पर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार सच्चिदानन्द रूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संसर्ग से कर्म ही शुद्ध हो गए।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गए तब श्री रामचन्द्रजी प्रीति के साथ गुरुजी से बोले-॥2॥

नाथ लोग सब निपट दुखारी। कन्द मूल फल अम्बु आहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥3॥

मूल

नाथ लोग सब निपट दुखारी। कन्द मूल फल अम्बु आहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥3॥

भावार्थ

हे नाथ! सब लोग यहाँ अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। कन्द, मूल, फल और जल का ही आहार करते हैं। भाई शत्रुघ्न सहित भरत को, मन्त्रियों को और सब माताओं को देखकर मुझे एक-एक पल युग के समान बीत रहा है॥3॥

सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥4॥

मूल

सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥4॥

भावार्थ

अतः सबके साथ आप अयोध्यापुरी को पधारिए (लौट जाइए)। आप यहाँ हैं और राजा अमरावती (स्वर्ग) में हैं (अयोध्या सूनी है)! मैन्ने बहुत कह डाला, यह सब बडी ढिठाई की है। हे गोसाईं! जैसा उचित हो, वैसा ही कीजिए॥4॥