01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।
अम्ब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥244॥
मूल
भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।
अम्ब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥244॥
भावार्थ
फिर श्री रघुनाथजी सब माताओं से मिले। उन्होन्ने सबको समझा-बुझाकर सन्तोष कराया कि हे माता! जगत ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए॥244॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरतिय पद बन्दे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे सँग आईं॥
गङ्ग गौरिसम सब सनमानीं। देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥
मूल
गुरतिय पद बन्दे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे सँग आईं॥
गङ्ग गौरिसम सब सनमानीं। देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥
भावार्थ
फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित- जो भरतजी के साथ आई थीं, गुरुजी की पत्नी अरुन्धतीजी के चरणों की वन्दना की और उन सबका गङ्गाजी तथा गौरीजी के समान सम्मान किया। वे सब आनन्दित होकर कोमल वाणी से आशीर्वाद देने लगीं॥1॥
गहि पद लगे सुमित्रा अङ्का। जनु भेण्टी सम्पति अति रङ्का॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता॥2॥
मूल
गहि पद लगे सुमित्रा अङ्का। जनु भेण्टी सम्पति अति रङ्का॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता॥2॥
भावार्थ
तब दोनों भाई पैर पकडकर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे। मानो किसी अत्यन्त दरिद्र की सम्पत्ति से भेण्ट हो गई हो। फिर दोनों भाई माता कौसल्याजी के चरणों में गिर पडे। प्रेम के मारे उनके सारे अङ्ग शिथिल हैं॥2॥
अति अनुराग अम्ब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥3॥
मूल
अति अनुराग अम्ब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥3॥
भावार्थ
बडे ही स्नेह से माता ने उन्हें हृदय से लगा लिया और नेत्रों से बहे हुए प्रेमाश्रुओं के जल से उन्हें नहला दिया। उस समय के हर्ष और विषाद को कवि कैसे कहे? जैसे गूँगा स्वाद को कैसे बतावे?॥3॥
मिलि जननिहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥4॥
मूल
मिलि जननिहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥4॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित माता कौसल्या से मिलकर गुरु से कहा कि आश्रम पर पधारिए। तदनन्तर मुनीश्वर वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर अयोध्यावासी सब लोग जल और थल का सुभीता देख-देखकर उतर गए॥4॥