242

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242॥

मूल

नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242॥

भावार्थ

हे नाथ! मुनिनाथ वशिष्ठजी के साथ सब माताएँ, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मन्त्री- सब आपके वियोग से व्याकुल होकर आए हैं॥242॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीलसिन्धु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥

मूल

सीलसिन्धु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥

भावार्थ

गुरु का आगमन सुनकर शील के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने सीताजी के पास शत्रुघ्नजी को रख दिया और वे परम धीर, धर्मधुरन्धर, दीनदयालु श्री रामचन्द्रजी उसी समय वेग के साथ चल पडे॥1॥

गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दण्ड प्रनाम करन प्रभु लागे॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेण्टे दोउ भाई॥2॥

मूल

गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दण्ड प्रनाम करन प्रभु लागे॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेण्टे दोउ भाई॥2॥

भावार्थ

गुरुजी के दर्शन करके लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी प्रेम में भर गए और दण्डवत प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दौडकर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेम में उमँगकर वे दोनों भाइयों से मिले॥2॥

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दण्ड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेण्टा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥

मूल

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दण्ड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेण्टा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥

भावार्थ

फिर प्रेम से पुलकित होकर केवट (निषादराज) ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्डवत प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो॥3॥

रघुपति भगति सुमङ्गल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥

मूल

रघुपति भगति सुमङ्गल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी की भक्ति सुन्दर मङ्गलों का मूल है, इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे- जगत में इसके समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठजी के समान बडा कौन है?॥4॥