01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेण्टेउ राम।
भूरि भायँ भेण्टे भरत लछिमन करत प्रनाम॥241॥
मूल
मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेण्टेउ राम।
भूरि भायँ भेण्टे भरत लछिमन करत प्रनाम॥241॥
भावार्थ
फिर श्री रामजी प्रेम के साथ शत्रुघ्न से मिलकर तब केवट (निषादराज) से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बडे ही प्रेम से मिले॥241॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
भेण्टेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बन्दे। अभिमत आसिष पाइ अनन्दे॥1॥
मूल
भेण्टेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बन्दे। अभिमत आसिष पाइ अनन्दे॥1॥
भावार्थ
तब लक्ष्मणजी ललककर (बडी उमङ्ग के साथ) छोटे भाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होन्ने निषादराज को हृदय से लगा लिया। फिर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाइयों ने (उपस्थित) मुनियों को प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनन्दित हुए॥1॥
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥2॥
मूल
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥2॥
भावार्थ
छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरतजी प्रेम में उमँगकर सीताजी के चरण कमलों की रज सिर पर धारण कर बार-बार प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उन्हें उठाकर उनके सिर को अपने करकमल से स्पर्श कर (सिर पर हाथ फेरकर) उन दोनों को बैठाया॥2॥
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मनग सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥3॥
मूल
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मनग सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥3॥
भावार्थ
सीताजी ने मन ही मन आशीर्वाद दिया, क्योङ्कि वे स्नेह में मग्न हैं, उन्हें देह की सुध-बुध नहीं है। सीताजी को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित हो गए और उनके हृदय का कल्पित भय जाता रहा॥3॥
कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥4॥
मूल
कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥4॥
भावार्थ
उस समय न तो कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पूछता है! मन प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी गति से खाली है (अर्थात सङ्कल्प-विकल्प और चाञ्चल्य से शून्य है)। उस अवसर पर केवट (निषादराज) धीरज धर और हाथ जोडकर प्रणाम करके विनती करने लगा-॥4॥