01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
लसत मञ्जु मुनि मण्डली मध्य सीय रघुचन्दु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानन्दु॥239॥
मूल
लसत मञ्जु मुनि मण्डली मध्य सीय रघुचन्दु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानन्दु॥239॥
भावार्थ
सुन्दर मुनि मण्डली के बीच में सीताजी और रघुकुलचन्द्र श्री रामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात् भक्ति और सच्चिदानन्द शरीर धारण करके विराजमान हैं॥239॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥
मूल
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥
भावार्थ
छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन (प्रेम में) मग्न हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। हे नाथ! रक्षा कीजिए, हे गुसाईं! रक्षा कीजिए’ ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पडे॥1॥
बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बन्धु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥2॥
मूल
बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बन्धु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥2॥
भावार्थ
प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। (वे श्री रामजी की ओर मुँह किए खडे थे, भरतजी पीठ पीछे थे, इससे उन्होन्ने देखा नहीं।) अब इस ओर तो भाई भरतजी का सरस प्रेम और उधर स्वामी श्री रामचन्द्रजी की सेवा की प्रबल परवशता॥2॥
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढी चङ्ग जनु खैञ्च खेलारू॥3॥
मूल
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढी चङ्ग जनु खैञ्च खेलारू॥3॥
भावार्थ
न तो (क्षणभर के लिए भी सेवा से पृथक होकर) मिलते ही बनता है और न (प्रेमवश) छोडते (उपेक्षा करते) ही। कोई श्रेष्ठ कवि ही लक्ष्मणजी के चित्त की इस गति (दुविधा) का वर्णन कर सकता है। वे सेवा पर भार रखकर रह गए (सेवा को ही विशेष महत्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे) मानो चढी हुई पतङ्ग को खिलाडी (पतङ्ग उडाने वाला) खीञ्च रहा हो॥3॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषङ्ग धनु तीरा॥4॥
मूल
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषङ्ग धनु तीरा॥4॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी ने प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा- हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्री रघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण॥4॥