01 दोहा
भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिन्धु बिनसाइ॥231॥
मूल
भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिन्धु बिनसाइ॥231॥
भावार्थ
(अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है) ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने का! क्या कभी काँजी की बूँदों से क्षीरसमुद्र नष्ट हो सकता (फट सकता) है?॥231॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥
गोपद जल बूडहिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाडै छोनी॥1॥
मूल
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥
गोपद जल बूडहिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाडै छोनी॥1॥
भावार्थ
अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए। गो के खुर इतने जल में अगस्त्यजी डूब जाएँ और पृथ्वी चाहे अपनी स्वाभाविक क्षमा (सहनशीलता) को छोड दे॥1॥
मसक फूँक मकु मेरु उडाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबन्धु नहिं भरत समाना॥2॥
मूल
मसक फूँक मकु मेरु उडाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबन्धु नहिं भरत समाना॥2॥
भावार्थ
मच्छर की फूँक से चाहे सुमेरु उड जाए, परन्तु हे भाई! भरत को राजमद कभी नहीं हो सकता। हे लक्ष्मण! मैं तुम्हारी शपथ और पिताजी की सौगन्ध खाकर कहता हूँ, भरत के समान पवित्र और उत्तम भाई संसार में नहीं है॥2॥
सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपञ्चु बिधाता॥
भरतु हंस रबिबंस तडागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥3॥
मूल
सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपञ्चु बिधाता॥
भरतु हंस रबिबंस तडागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥3॥
भावार्थ
हे तात! गुरु रूपी दूध और अवगुण रूपी जल को मिलाकर विधाता इस दृश्य प्रपञ्च (जगत्) को रचता है, परन्तु भरत ने सूर्यवंश रूपी तालाब में हंस रूप जन्म लेकर गुण और दोष का विभाग कर दिया (दोनों को अलग-अलग कर दिया)॥3॥
गहि गुन पय तजि अवगुण बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥4॥
मूल
गहि गुन पय तजि अवगुण बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥4॥
भावार्थ
गुणरूपी दूध को ग्रहण कर और अवगुण रूपी जल को त्यागकर भरत ने अपने यश से जगत् में उजियाला कर दिया है। भरतजी के गुण, शील और स्वभाव को कहते-कहते श्री रघुनाथजी प्रेमसमुद्र में मग्न हो गए॥4॥