229

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढति सिर नीच को धूरि समान॥229॥

मूल

छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढति सिर नीच को धूरि समान॥229॥

भावार्थ

क्षत्रिय जाति, रघुकुल में जन्म और फिर मैं श्री रामजी (आप) का अनुगामी (सेवक) हूँ, यह जगत्‌ जानता है। (फिर भला कैसे सहा जाए?) धूल के समान नीच कौन है, परन्तु वह भी लात मारने पर सिर ही चढती है॥229॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥1॥

मूल

उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥1॥

भावार्थ

यों कहकर लक्ष्मणजी ने उठकर, हाथ जोडकर आज्ञा माँगी। मानो वीर रस सोते से जाग उठा हो। सिर पर जटा बाँधकर कमर में तरकस कस लिया और धनुष को सजाकर तथा बाण को हाथ में लेकर कहा-॥1॥

आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥2॥

मूल

आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥2॥

भावार्थ

आज मैं श्री राम (आप) का सेवक होने का यश लूँ और भरत को सङ्ग्राम में शिक्षा दूँ। श्री रामचन्द्रजी (आप) के निरादर का फल पाकर दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) रण शय्या पर सोवें॥2॥

आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥3॥

मूल

आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥3॥

भावार्थ

अच्छा हुआ जो सारा समाज आकर एकत्र हो गया। आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूँगा। जैसे सिंह हाथियों के झुण्ड को कुचल डालता है और बाज जैसे लवे को लपेट में ले लेता है॥3॥

तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
जौं सहाय कर सङ्करु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥4॥

मूल

तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
जौं सहाय कर सङ्करु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥4॥

भावार्थ

वैसे ही भरत को सेना समेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार करके मैदान में पछाडूँगा। यदि शङ्करजी भी आकर उनकी सहायता करें, तो भी, मुझे रामजी की सौगन्ध है, मैं उन्हें युद्ध में (अवश्य) मार डालूँगा (छोडूँगा नहीं)॥4॥