227

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ सुहृद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥

मूल

नाथ सुहृद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥

भावार्थ

हे नाथ! आप परम सुहृद् (बिना ही कारण परम हित करने वाले), सरल हृदय तथा शील और स्नेह के भण्डार हैं, आपका सभी पर प्रेम और विश्वास है, और अपने हृदय में सबको अपने ही समान जानते हैं॥227॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ मोह बस होहिं जनाई॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥1॥

मूल

बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ मोह बस होहिं जनाई॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥1॥

भावार्थ

परन्तु मूढ विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत नीतिपरायण, साधु और चतुर हैं तथा प्रभु (आप) के चरणों में उनका प्रेम है, इस बात को सारा जगत्‌ जानता है॥1॥

तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥
कुटिल कुबन्धु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥2॥

मूल

तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥
कुटिल कुबन्धु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥2॥

भावार्थ

वे भरतजी आज श्री रामजी (आप) का पद (सिंहासन या अधिकार) पाकर धर्म की मर्यादा को मिटाकर चले हैं। कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि रामजी (आप) वनवास में अकेले (असहाय) हैं,॥2॥

करि कुमन्त्रु मन साजि समाजू। आए करै अकण्टक राजू॥
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥3॥

मूल

करि कुमन्त्रु मन साजि समाजू। आए करै अकण्टक राजू॥
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥3॥

भावार्थ

अपने मन में बुरा विचार करके, समाज जोडकर राज्यों को निष्कण्टक करने के लिए यहाँ आए हैं। करोडों (अनेकों) प्रकार की कुटिलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आए हैं॥3॥

जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥4॥

मूल

जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥4॥

भावार्थ

यदि इनके हृदय में कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोडे और हाथियों की कतार (ऐसे समय) किसे सुहाती? परन्तु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे? राजपद पा जाने पर सारा जगत्‌ ही पागल (मतवाला) हो जाता है॥4॥