226

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत सुमङ्गल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥

मूल

सुनत सुमङ्गल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥

भावार्थ

तुलसीदासजी कहते हैं कि सुन्दर मङ्गल वचन सुनते ही श्री रामचन्द्रजी के मन में बडा आनन्द हुआ। शरीर में पुलकावली छा गई और शरद् ऋतु के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गए॥226॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन सङ्ग चतुरङ्ग न थोरी॥1॥

मूल

बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन सङ्ग चतुरङ्ग न थोरी॥1॥

भावार्थ

सीतापति श्री रामचन्द्रजी पुनः सोच के वश हो गए कि भरत के आने का क्या कारण है? फिर एक ने आकर ऐसा कहा कि उनके साथ में बडी भारी चतुरङ्गिणी सेना भी है॥1॥

सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बन्धु सकोचू॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥2॥

मूल

सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बन्धु सकोचू॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥2॥

भावार्थ

यह सुनकर श्री रामचन्द्रजी को अत्यन्त सोच हुआ। इधर तो पिता के वचन और उधर भाई भरतजी का सङ्कोच! भरतजी के स्वभाव को मन में समझकर तो प्रभु श्री रामचन्द्रजी चित्त को ठहराने के लिए कोई स्थान ही नहीं पाते हैं॥2॥

समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥3॥

मूल

समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥3॥

भावार्थ

तब यह जानकर समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं तथा मेरे कहने में (आज्ञाकारी) हैं। लक्ष्मणजी ने देखा कि प्रभु श्री रामजी के हृदय में चिन्ता है तो वे समय के अनुसार अपना नीतियुक्त विचार कहने लगे-॥3॥

बिनु पूछें कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥4॥

मूल

बिनु पूछें कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥4॥

भावार्थ

हे स्वामी! आपके बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूँ, सेवक समय पर ढिठाई करने से ढीठ नहीं समझा जाता (अर्थात्‌ आप पूछें तब मैं कहूँ, ऐसा अवसर नहीं है, इसलिए यह मेरा कहना ढिठाई नहीं होगा)। हे स्वामी! आप सर्वज्ञों में शिरोमणि हैं (सब जानते ही हैं)। मैं सेवक तो अपनी समझ की बात कहता हूँ॥4॥