01 दोहा
चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥222॥
मूल
चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥222॥
भावार्थ
(वह बोली-) देखो, ये भरतजी पिता के दिए हुए राज्य को त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते हुए श्री रामजी को मनाने के लिए जा रहे हैं। इनके समान आज कौन है?॥222॥।
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बन्धु अस काहे न होई॥1॥
मूल
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बन्धु अस काहे न होई॥1॥
भावार्थ
भरतजी का भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दुःख और दोषों के हरने वाले हैं। हे सखी! उनके सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा जाए, वह थोडा है। श्री रामचन्द्रजी के भाई ऐसे क्यों न हों॥1॥
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥2॥
मूल
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥2॥
भावार्थ
छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरतजी को देखकर हम सब भी आज धन्य (बडभागिनी) स्त्रियों की गिनती में आ गईं। इस प्रकार भरतजी के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियाँ पछताती हैं और कहती हैं- यह पुत्र कैकयी जैसी माता के योग्य नहीं है॥2॥
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥3॥
मूल
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥3॥
भावार्थ
कोई कहती है- इसमें रानी का भी दोष नहीं है। यह सब विधाता ने ही किया है, जो हमारे अनुकूल है। कहाँ तो हम लोक और वेद दोनों की विधि (मर्यादा) से हीन, कुल और करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियाँ,॥3॥
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा॥
अस अनन्दु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥4॥
मूल
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा॥
अस अनन्दु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥4॥
भावार्थ
जो बुरे देश (जङ्गली प्रान्त) और बुरे गाँव में बसती हैं और (स्त्रियों में भी) नीच स्त्रियाँ हैं! और कहाँ यह महान् पुण्यों का परिणामस्वरूप इनका दर्शन! ऐसा ही आनन्द और आश्चर्य गाँव-गाँव में हो रहा है। मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष उग गया हो॥4॥