01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढे बिबेक जहाज॥220॥
मूल
रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढे बिबेक जहाज॥220॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी के (श्याम) रङ्ग का सुन्दर जल देखकर सारे समाज सहित भरतजी (प्रेम विह्वल होकर) श्री रामजी के विरह रूपी समुद्र में डूबते-डूबते विवेक रूपी जहाज पर चढ गए (अर्थात् यमुनाजी का श्यामवर्ण जल देखकर सब लोग श्यामवर्ण भगवान के प्रेम में विह्वल हो गए और उन्हें न पाकर विरह व्यथा से पीडित हो गए, तब भरतजी को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात् दर्शन करेङ्गे, इस विवेक से वे फिर उत्साहित हो गए)॥220॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥1॥
मूल
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥1॥
भावार्थ
उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिए (खान-पान आदि की) सुन्दर व्यवस्था हुई (निषादराज का सङ्केत पाकर) रात ही रात में घाट-घाट की अगणित नावें वहाँ आ गईं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता॥1॥
प्रात पार भए एकहि खेवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥2॥
मूल
प्रात पार भए एकहि खेवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥2॥
भावार्थ
सबेरे एक ही खेवे में सब लोग पार हो गए और श्री रामचन्द्रजी के सखा निषादराज की इस सेवा से सन्तुष्ट हुए। फिर स्नान करके और नदी को सिर नवाकर निषादराज के साथ दोनों भाई चले॥2॥
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें॥
तेहि पाछें दोउ बन्धु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥3॥
मूल
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें॥
तेहि पाछें दोउ बन्धु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥3॥
भावार्थ
आगे अच्छी-अच्छी सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा है। उसके पीछे दोनों भाई बहुत सादे भूषण-वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे हैं॥3॥
सेवक सुहृद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥4॥
मूल
सेवक सुहृद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥4॥
भावार्थ
सेवक, मित्र और मन्त्री के पुत्र उनके साथ हैं। लक्ष्मण, सीताजी और श्री रघुनाथजी का स्मरण करते जा रहे हैं। जहाँ-जहाँ श्री रामजी ने निवास और विश्राम किया था, वहाँ-वहाँ वे प्रेमसहित प्रणाम करते हैं॥4॥