01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥217॥
मूल
रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥217॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी सङ्कोची और प्रेम के वश हैं और भरतजी प्रेम के समुद्र हैं। बनी-बनाई बात बिगडना चाहती है, इसलिए कुछ छल ढूँढकर इसका उपाय कीजिए॥217॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥1॥
मूल
बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥1॥
भावार्थ
इन्द्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पतिजी मुस्कुराए। उन्होन्ने हजार नेत्रों वाले इन्द्र को (ज्ञान रूपी) नेत्रोंरहित (मूर्ख) समझा और कहा- हे देवराज! माया के स्वामी श्री रामचन्द्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पडती है॥1॥
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥2॥
मूल
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥2॥
भावार्थ
उस समय (पिछली बार) तो श्री रामचन्द्रजी का रुख जानकर कुछ किया था, परन्तु इस समय कुचाल करने से हानि ही होगी। हे देवराज! श्री रघुनाथजी का स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किए हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते॥2॥
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥3॥
मूल
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥3॥
भावार्थ
पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह श्री राम की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद दोनों में इतिहास (कथा) प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासाजी जानते हैं॥3॥
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥4॥
मूल
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥4॥
भावार्थ
सारा जगत् श्री राम को जपता है, वे श्री रामजी जिनको जपते हैं, उन भरतजी के समान श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी कौन होगा?॥4॥