215

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्पति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिञ्जराँ राखे भा भिनुसार॥215॥

मूल

सम्पति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिञ्जराँ राखे भा भिनुसार॥215॥

भावार्थ

सम्पत्ति (भोग-विलास की सामग्री) चकवी है और भरतजी चकवा हैं और मुनि की आज्ञा खेल है, जिसने उस रात को आश्रम रूपी पिञ्जडे में दोनों को बन्द कर रखा और ऐसे ही सबेरा हो गया। (जैसे किसी बहेलिए के द्वारा एक पिञ्जडे में रखे जाने पर भी चकवी-चकवे का रात को संयोग नहीं होता, वैसे ही भरद्वाजजी की आज्ञा से रात भर भोग सामग्रियों के साथ रहने पर भी भरतजी ने मन से भी उनका स्पर्श तक नहीं किया।)॥215॥

मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाई मुनिहि सिरु सहित समाजा।
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दण्डवत बिनय बहु भाषी॥1॥

मूल

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाई मुनिहि सिरु सहित समाजा।
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दण्डवत बिनय बहु भाषी॥1॥

भावार्थ

(प्रातःकाल) भरतजी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर और ऋषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को सिर चढाकर दण्डवत्‌ करके बहुत विनती की॥1॥

पथ गति कुसल साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥2॥

मूल

पथ गति कुसल साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥2॥

भावार्थ

तदनन्तर रास्ते की पहचान रखने वाले लोगों (कुशल पथप्रदर्शकों) के साथ सब लोगों को लिए हुए भरतजी त्रिकूट में चित्त लगाए चले। भरतजी रामसखा गुह के हाथ में हाथ दिए हुए ऐसे जा रहे हैं, मानो साक्षात्‌ प्रेम ही शरीर धारण किए हुए हो॥2॥

नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
लखन राम सिय पन्थ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥3॥

मूल

नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
लखन राम सिय पन्थ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥3॥

भावार्थ

न तो उनके पैरों में जूते हैं और न सिर पर छाया है, उनका प्रेम नियम, व्रत और धर्म निष्कपट (सच्चा) है। वे सखा निषादराज से लक्ष्मणजी, श्री रामचन्द्रजी और सीताजी के रास्ते की बातें पूछते हैं और वह कोमल वाणी से कहता है॥3॥

राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकें॥
देखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मङ्गल मूला॥4॥

मूल

राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकें॥
देखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मङ्गल मूला॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के ठहरने की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोके नहीं रुकता। भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी कोमल हो गई और मार्ग मङ्गल का मूल बन गया॥4॥