212

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कन्द मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु॥212॥

मूल

करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कन्द मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु॥212॥

भावार्थ

इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी ने उनका समाधान करके कहा- अब आप लोग हमारे प्रेम प्रिय अतिथि बनिए और कृपा करके कन्द-मूल, फल-फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार कीजिए॥212॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
जानि गुरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बन्दि बोले कर जोरी॥1॥

मूल

सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
जानि गुरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बन्दि बोले कर जोरी॥1॥

भावार्थ

मुनि के वचन सुनकर भरत के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बडा बेढब सङ्कोच आ पडा! फिर गुरुजनों की वाणी को महत्वपूर्ण (आदरणीय) समझकर, चरणों की वन्दना करके हाथ जोडकर बोले-॥1॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥2॥

मूल

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥2॥

भावार्थ

हे नाथ! आपकी आज्ञा को सिर चढाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है। भरतजी के ये वचन मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे। उन्होन्ने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों को पास बुलाया॥2॥

चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई। कन्द मूल फल आनहु जाई।
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥3॥

मूल

चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई। कन्द मूल फल आनहु जाई।
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥3॥

भावार्थ

(और कहा कि) भरत की पहुनाई करनी चाहिए। जाकर कन्द, मूल और फल लाओ। उन्होन्ने ‘हे नाथ! बहुत अच्छा’ कहकर सिर नवाया और तब वे बडे आनन्दित होकर अपने-अपने काम को चल दिए॥3॥

मुनिहि सोच पाहुन बड नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं। आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥4॥

मूल

मुनिहि सोच पाहुन बड नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं। आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥4॥

भावार्थ

मुनि को चिन्ता हुई कि हमने बहुत बडे मेहमान को न्योता है। अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिए। यह सुनकर ऋद्धियाँ और अणिमादि सिद्धियाँ आ गईं (और बोलीं-) हे गोसाईं! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें॥4॥