01 दोहा
पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मण्डलिहि बोले गदगद बैन॥210॥
मूल
पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मण्डलिहि बोले गदगद बैन॥210॥
भावार्थ
भरतजी का शरीर पुलकित है, हृदय में श्री सीता-रामजी हैं और कमल के समान नेत्र (प्रेमाश्रु के) जल से भरे हैं। वे मुनियों की मण्डली को प्रणाम करके गद्गद वचन बोले-॥210॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥1॥
मूल
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥1॥
भावार्थ
मुनियों का समाज है और फिर तीर्थराज है। यहाँ सच्ची सौगन्ध खाने से भी भरपूर हानि होती है। इस स्थान में यदि कुछ बनाकर कहा जाए, तो इसके समान कोई बडा पाप और नीचता न होगी॥1॥
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अन्तरजामी रघुराऊ॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥2॥
मूल
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अन्तरजामी रघुराऊ॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥2॥
भावार्थ
मैं सच्चे भाव से कहता हूँ। आप सर्वज्ञ हैं और श्री रघुनाथजी हृदय के भीतर की जानने वाले हैं (मैं कुछ भी असत्य कहूँगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता)। मुझे माता कैकेयी की करनी का कुछ भी सोच नहीं है और न मेरे मन में इसी बात का दुःख है कि जगत मुझे नीच समझेगा॥2॥
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥3॥
मूल
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥3॥
भावार्थ
न यही डर है कि मेरा परलोक बिगड जाएगा और न पिताजी के मरने का ही मुझे शोक है, क्योङ्कि उनका सुन्दर पुण्य और सुयश विश्व भर में सुशोभित है। उन्होन्ने श्री राम-लक्ष्मण सरीखे पुत्र पाए॥3॥
राम बिरहँ तजि तनु छनभङ्गू। भूप सोच कर कवन प्रसङ्गू॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥4॥
मूल
राम बिरहँ तजि तनु छनभङ्गू। भूप सोच कर कवन प्रसङ्गू॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥4॥
भावार्थ
फिर जिन्होन्ने श्री रामचन्द्रजी के विरह में अपने क्षणभङ्गुर शरीर को त्याग दिया, ऐसे राजा के लिए सोच करने का कौन प्रसङ्ग है? (सोच इसी बात का है कि) श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी पैरों में बिना जूती के मुनियों का वेष बनाए वन-वन में फिरते हैं॥4॥