208

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्ह कहँ भरत कलङ्क यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥208॥

मूल

तुम्ह कहँ भरत कलङ्क यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥208॥

भावार्थ

हे भरत! तुम्हारे लिए (तुम्हारी समझ में) यह कलङ्क है, पर हम सबके लिए तो उपदेश है। श्री रामभक्ति रूपी रस की सिद्धि के लिए यह समय गणेश (बडा शुभ) हुआ है॥208॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किङ्कर कुमुद चकोरा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥1॥

मूल

नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किङ्कर कुमुद चकोरा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥1॥

भावार्थ

हे तात! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चन्द्रमा है और श्री रामचन्द्रजी के दास कुमुद और चकोर हैं (वह चन्द्रमा तो प्रतिदिन अस्त होता और घटता है, जिससे कुमुद और चकोर को दुःख होता है), परन्तु यह तुम्हारा यश रूपी चन्द्रमा सदा उदय रहेगा, कभी अस्त होगा ही नहीं! जगत रूपी आकाश में यह घटेगा नहीं, वरन दिन-दिन दूना होगा॥1॥

कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू॥2॥

मूल

कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू॥2॥

भावार्थ

त्रैलोक्य रूपी चकवा इस यश रूपी चन्द्रमा पर अत्यन्त प्रेम करेगा और प्रभु श्री रामचन्द्रजी का प्रताप रूपी सूर्य इसकी छबि को हरण नहीं करेगा। यह चन्द्रमा रात-दिन सदा सब किसी को सुख देने वाला होगा। कैकेयी का कुकर्म रूपी राहु इसे ग्रास नहीं करेगा॥2॥

पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ॥3॥

मूल

पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ॥3॥

भावार्थ

यह चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर प्रेम रूपी अमृत से पूर्ण है। यह गुरु के अपमान रूपी दोष से दूषित नहीं है। तुमने इस यश रूपी चन्द्रमा की सृष्टि करके पृथ्वी पर भी अमृत को सुलभ कर दिया। अब श्री रामजी के भक्त इस अमृत से तृप्त हो लें॥3॥

भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुमङ्गल खानी॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥4॥

मूल

भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुमङ्गल खानी॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥4॥

भावार्थ

राजा भगीरथ गङ्गाजी को लाए, जिन (गङ्गाजी) का स्मरण ही सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलों की खान है। दशरथजी के गुण समूहों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता, अधिक क्या, जिनकी बराबरी का जगत में कोई नहीं है॥4॥