01 दोहा
अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमङ्गल मूल जग रघुबर चरन सनेहु॥207॥
मूल
अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमङ्गल मूल जग रघुबर चरन सनेहु॥207॥
भावार्थ
हे भरत! अब तो तुमने बहुत ही अच्छा किया, यही मत तुम्हारे लिए उचित था। श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम होना ही संसार में समस्त सुन्दर मङ्गलों का मूल है॥207॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥
यह तुम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥1॥
मूल
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥
यह तुम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥1॥
भावार्थ
सो वह (श्री रामचन्द्रजी के चरणों का प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है, तुम्हारे समान बडभागी कौन है? हे तात! तुम्हारे लिए यह आश्चर्य की बात नहीं है, क्योङ्कि तुम दशरथजी के पुत्र और श्री रामचन्द्रजी के प्यारे भाई हो॥1॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥2॥
मूल
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥2॥
भावार्थ
हे भरत! सुनो, श्री रामचन्द्र के मन में तुम्हारे समान प्रेम पात्र दूसरा कोई नहीं है। लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी तीनों की सारी रात उस दिन अत्यन्त प्रेम के साथ तुम्हारी सराहना करते ही बीती॥2॥
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड नर कें॥3॥
मूल
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड नर कें॥3॥
भावार्थ
प्रयागराज में जब वे स्नान कर रहे थे, उस समय मैन्ने उनका यह मर्म जाना। वे तुम्हारे प्रेम में मग्न हो रहे थे। तुम पर श्री रामचन्द्रजी का ऐसा ही (अगाध) स्नेह है, जैसा मूर्ख (विषयासक्त) मनुष्य का संसार में सुखमय जीवन पर होता है॥3॥
यह न अधिक रघुबीर बडाई। प्रनत कुटुम्ब पाल रघुराई॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू॥4॥
मूल
यह न अधिक रघुबीर बडाई। प्रनत कुटुम्ब पाल रघुराई॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू॥4॥
भावार्थ
यह श्री रघुनाथजी की बहुत बडाई नहीं है, क्योङ्कि श्री रघुनाथजी तो शरणागत के कुटुम्ब भर को पालने वाले हैं। हे भरत! मेरा यह मत है कि तुम तो मानो शरीरधारी श्री रामजी के प्रेम ही हो॥4॥