01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझि मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति॥206॥
मूल
तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझि मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति॥206॥
भावार्थ
माता की करतूत को समझकर (याद करके) तुम हृदय में ग्लानि मत करो। हे तात! कैकेयी का कोई दोष नहीं है, उसकी बुद्धि तो सरस्वती बिगाड गई थी॥206॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेदु बुध सम्मत दोऊ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बडाई॥1॥
मूल
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेदु बुध सम्मत दोऊ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बडाई॥1॥
भावार्थ
यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योङ्कि लोक और वेद दोनों ही विद्वानों को मान्य है, किन्तु हे तात! तुम्हारा निर्मल यश गाकर तो लोक और वेद दोनों बडाई पावेङ्गे॥1॥
लोक बेद सम्मत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बडाई॥2॥
मूल
लोक बेद सम्मत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बडाई॥2॥
भावार्थ
यह लोक और वेद दोनों को मान्य है और सब यही कहते हैं कि पिता जिसको राज्य दे वही पाता है। राजा सत्यव्रती थे, तुमको बुलाकर राज्य देते, तो सुख मिलता, धर्म रहता और बडाई होती॥2॥
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला॥
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अन्तहुँ पछितानी॥3॥
मूल
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला॥
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अन्तहुँ पछितानी॥3॥
भावार्थ
सारे अनर्थ की जड तो श्री रामचन्द्रजी का वनगमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को पीडा हुई। वह श्री राम का वनगमन भी भावीवश हुआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अन्त में पछताई॥3॥
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि ना दोषू। रामहि होत सुनत सन्तोषू॥4॥
मूल
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि ना दोषू। रामहि होत सुनत सन्तोषू॥4॥
भावार्थ
उसमें भी तुम्हारा कोई तनिक सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज्य करते तो भी तुम्हें दोष न होता। सुनकर श्री रामचन्द्रजी को भी सन्तोष ही होता॥4॥