205

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल॥205॥

मूल

तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल॥205॥

भावार्थ

त्रिवेणीजी के अनुकूल वचन सुनकर भरतजी का शरीर पुलकित हो गया, हृदय में हर्ष छा गया। भरतजी धन्य हैं, कहकर देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे॥205॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेहु सीलु सुचि साँचा॥1॥

मूल

प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेहु सीलु सुचि साँचा॥1॥

भावार्थ

तीर्थराज प्रयाग में रहने वाले वनप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन (सन्न्यासी) सब बहुत ही आनन्दित हैं और दस-पाँच मिलकर आपस में कहते हैं कि भरतजी का प्रेम और शील पवित्र और सच्चा है॥1॥

सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दण्ड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमन्त भाग्य निज लेखे॥2॥

मूल

सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दण्ड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमन्त भाग्य निज लेखे॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर गुण समूहों को सुनते हुए वे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी के पास आए। मुनि ने भरतजी को दण्डवत प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान सौभाग्य समझा॥2॥

धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥3॥

मूल

धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥3॥

भावार्थ

उन्होन्ने दौडकर भरतजी को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर सङ्कोच के घर में घुस जाना चाहते हैं॥3॥

मुनि पूँछब कछु यह बड सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई॥4॥

मूल

मुनि पूँछब कछु यह बड सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई॥4॥

भावार्थ

उनके मन में यह बडा सोच है कि मुनि कुछ पूछेङ्गे (तो मैं क्या उत्तर दूँगा)। भरतजी के शील और सङ्कोच को देखकर ऋषि बोले- भरत! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं। विधाता के कर्तव्य पर कुछ वश नहीं चलता॥4॥