202

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रातक्रिया करि मातु पद बन्दि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ॥202॥

मूल

प्रातक्रिया करि मातु पद बन्दि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ॥202॥

भावार्थ

प्रातःकाल की क्रियाओं को करके माता के चरणों की वन्दना कर और गुरुजी को सिर नवाकर भरतजी ने विषाद गणों को (रास्ता दिखलाने के लिए) आगे कर लिया और सेना चला दी॥202॥141॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥1॥

मूल

कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥1॥

भावार्थ

निषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं की पालकियाँ चलाईं। छोटे भाई शत्रुघ्नजी को बुलाकर उनके साथ कर दिया। फिर ब्राह्मणों सहित गुरुजी ने गमन किया॥1॥

आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल सङ्ग जाहिं डोरिआए॥2॥

मूल

आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल सङ्ग जाहिं डोरिआए॥2॥

भावार्थ

तदनन्तर आप (भरतजी) ने गङ्गाजी को प्रणाम किया और लक्ष्मण सहित श्री सीता-रामजी का स्मरण किया। भरतजी पैदल ही चले। उनके साथ कोतल (बिना सवार के) घोडे बागडोर से बँधे हुए चले जा रहे हैं॥2॥

कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा॥
रामु पयादेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥3॥

मूल

कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा॥
रामु पयादेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥3॥

भावार्थ

उत्तम सेवक बार-बार कहते हैं कि हे नाथ! आप घोडे पर सवार हो लीजिए। (भरतजी जवाब देते हैं कि) श्री रामचन्द्रजी तो पैदल ही गए और हमारे लिए रथ, हाथी और घोडे बनाए गए हैं॥3॥

सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥4॥

मूल

सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥4॥

भावार्थ

मुझे उचित तो ऐसा है कि मैं सिर के बल चलकर जाऊँ। सेवक का धर्म सबसे कठिन होता है। भरतजी की दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण ग्लानि के मारे गले जा रहे हैं॥4॥