201

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ आनि मन॥201॥

मूल

अन्तरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ आनि मन॥201॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी अन्तर्यामी तथा सङ्कोच, प्रेम और कृपा के धाम हैं, यह विचार कर और मन में दृढता लाकर चलिए और विश्राम कीजिए॥201॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥1॥

मूल

सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥1॥

भावार्थ

सखा के वचन सुनकर, हृदय में धीरज धरकर श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करते हुए भरतजी डेरे को चले। नगर के सारे स्त्री-पुरुष यह (श्री रामजी के ठहरने के स्थान का) समाचार पाकर बडे आतुर होकर उस स्थान को देखने चले॥1॥

परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा।
भरि भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधातहि दूषन देहीं॥2॥

मूल

परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा।
भरि भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधातहि दूषन देहीं॥2॥

भावार्थ

वे उस स्थान की परिक्रमा करके प्रणाम करते हैं और कैकेयी को बहुत दोष देते हैं। नेत्रों में जल भर-भर लेते हैं और प्रतिकूल विधाता को दूषण देते हैं॥2॥

एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू॥
निन्दहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि॥3॥

मूल

एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू॥
निन्दहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि॥3॥

भावार्थ

कोई भरतजी के स्नेह की सराहना करते हैं और कोई कहते हैं कि राजा ने अपना प्रेम खूब निबाहा। सब अपनी निन्दा करके निषाद की प्रशंसा करते हैं। उस समय के विमोह और विषाद को कौन कह सकता है?॥3॥

ऐहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा॥
गुरहि सुनावँ चढाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढाईं॥4॥

मूल

ऐहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा॥
गुरहि सुनावँ चढाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढाईं॥4॥

भावार्थ

इस प्रकार रातभर सब लोग जागते रहे। सबेरा होते ही खेवा लगा। सुन्दर नाव पर गुरुजी को चढाकर फिर नई नाव पर सब माताओं को चढाया॥4॥

दण्ड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा॥5॥

मूल

दण्ड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा॥5॥

भावार्थ

चार घडी में सब गङ्गाजी के पार उतर गए। तब भरतजी ने उतरकर सबको सँभाला॥5॥