01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखस्वरूप रघुबंसमनि मङ्गल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥200॥
मूल
सुखस्वरूप रघुबंसमनि मङ्गल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥200॥
भावार्थ
जो सुख स्वरूप रघुवंश शिरोमणि श्री रामचन्द्रजी मङ्गल और आनन्द के भण्डार हैं, वे पृथ्वी पर कुशा बिछाकर सोते हैं। विधाता की गति बडी ही बलवान है॥200॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राउ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥1॥
मूल
राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राउ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥1॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी ने कानों से भी कभी दुःख का नाम नहीं सुना। महाराज स्वयं जीवन वृक्ष की तरह उनकी सार-सँभाल किया करते थे। सब माताएँ भी रात-दिन उनकी ऐसी सार-सँभाल करती थीं, जैसे पलक नेत्रों और साँप अपनी मणि की करते हैं॥1॥
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कन्द मूल फल फूल अहारी॥
धिग कैकई अमङ्गल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥2॥
मूल
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कन्द मूल फल फूल अहारी॥
धिग कैकई अमङ्गल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥2॥
भावार्थ
वही श्री रामचन्द्रजी अब जङ्गलों में पैदल फिरते हैं और कन्द-मूल तथा फल-फूलों का भोजन करते हैं। अमङ्गल की मूल कैकेयी धिक्कार है, जो अपने प्राणप्रियतम पति से भी प्रतिकूल हो गई॥2॥
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥
कुल कलङ्कु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ॥3॥
मूल
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥
कुल कलङ्कु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ॥3॥
भावार्थ
मुझे पापों के समुद्र और अभागे को धिक्कार है, धिक्कार है, जिसके कारण ये सब उत्पात हुए। विधाता ने मुझे कुल का कलङ्क बनाकर पैदा किया और कुमाता ने मुझे स्वामी द्रोही बना दिया॥3॥
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥4॥
मूल
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥4॥
भावार्थ
यह सुनकर निषादराज प्रेमपूर्वक समझाने लगा- हे नाथ! आप व्यर्थ विषाद किसलिए करते हैं? श्री रामचन्द्रजी आपको प्यारे हैं और आप श्री रामचन्द्रजी को प्यारे हैं। यही निचोड (निश्चित सिद्धान्त) है, दोष तो प्रतिकूल विधाता को है॥4॥
03 छन्द
बिधि बाम की करनी कठिन जेहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहे किएँ।
परिनाम मङ्गल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥
मूल
बिधि बाम की करनी कठिन जेहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहे किएँ।
परिनाम मङ्गल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥
भावार्थ
प्रतिकूल विधाता की करनी बडी कठोर है, जिसने माता कैकेयी को बावली बना दिया (उसकी मति फेर दी)। उस रात को प्रभु श्री रामचन्द्रजी बार-बार आदरपूर्वक आपकी बडी सराहना करते थे। तुलसीदासजी कहते हैं- (निषादराज कहता है कि-) श्री रामचन्द्रजी को आपके समान अतिशय प्रिय और कोई नहीं है, मैं सौगन्ध खाकर कहता हूँ। परिणाम में मङ्गल होगा, यह जानकर आप अपने हृदय में धैर्य धारण कीजिए।