196

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥196॥

मूल

सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥196॥

भावार्थ

उसने अपने सब सेवकों को इशारे से कह दिया। वे स्वामी का रुख पाकर चले और उन्होन्ने घरों में, वृक्षों के नीचे, तालाबों पर तथा बगीचों और जङ्गलों में ठहरने के लिए स्थान बना दिए॥196॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृङ्गबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अङ्ग सिथिल तब॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥1॥

मूल

सृङ्गबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अङ्ग सिथिल तब॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥1॥

भावार्थ

भरतजी ने जब श्रृङ्गवेरपुर को देखा, तब उनके सब अङ्ग प्रेम के कारण शिथिल हो गए। वे निषाद को लाग दिए (अर्थात उसके कन्धे पर हाथ रखे चलते हुए) ऐसे शोभा दे रहे हैं, मानो विनय और प्रेम शरीर धारण किए हुए हों॥1॥

एहि बिधि भरत सेनु सबु सङ्गा। दीखि जाइ जग पावनि गङ्गा॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥2॥

मूल

एहि बिधि भरत सेनु सबु सङ्गा। दीखि जाइ जग पावनि गङ्गा॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥2॥

भावार्थ

इस प्रकार भरतजी ने सब सेना को साथ में लिए हुए जगत को पवित्र करने वाली गङ्गाजी के दर्शन किए। श्री रामघाट को (जहाँ श्री रामजी ने स्नान सन्ध्या की थी) प्रणाम किया। उनका मन इतना आनन्दमग्न हो गया, मानो उन्हें स्वयं श्री रामजी मिल गए हों॥2॥

करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी॥
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचन्द्र पद प्रीति न थोरी॥3॥

मूल

करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी॥
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचन्द्र पद प्रीति न थोरी॥3॥

भावार्थ

नगर के नर-नारी प्रणाम कर रहे हैं और गङ्गाजी के ब्रह्म रूप जल को देख-देखकर आनन्दित हो रहे हैं। गङ्गाजी में स्नान कर हाथ जोडकर सब यही वर माँगते हैं कि श्री रामचन्द्रजी के चरणों में हमारा प्रेम कम न हो (अर्थात बहुत अधिक हो)॥3॥

भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥4॥

मूल

भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥4॥

भावार्थ

भरतजी ने कहा- हे गङ्गे! आपकी रज सबको सुख देने वाली तथा सेवक के लिए तो कामधेनु ही है। मैं हाथ जोडकर यही वरदान माँगता हूँ कि श्री सीता-रामजी के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो॥4॥