01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वपच सबर खस जमन जड पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥194॥
भावार्थ
मूर्ख और पामर चाण्डाल, शबर, खस, यवन, कोल और किरात भी राम-नाम कहते ही परम पवित्र और त्रिभुवन में विख्यात हो जाते हैं॥194॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहिं अचिरिजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बडाई॥
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं॥1॥
भावार्थ
इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग-युगान्तर से यही रीति चली आ रही है। श्री रघुनाथजी ने किसको बडाई नहीं दी? इस प्रकार देवता राम नाम की महिमा कह रहे हैं और उसे सुन-सुनकर अयोध्या के लोग सुख पा रहे हैं॥1॥
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमङ्गल खेमा॥
देखि भरत कर सीलु सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥2॥
भावार्थ
राम सखा निषादराज से प्रेम के साथ मिलकर भरतजी ने कुशल, मङ्गल और क्षेम पूछी। भरतजी का शील और प्रेम देखकर निषाद उस समय विदेह हो गया (प्रेममुग्ध होकर देह की सुध भूल गया)॥2॥
सकुच सनेहु मोदु मन बाढा। भरतहि चितवत एकटक ठाढा॥
धरि धीरजु पद बन्दि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥3॥
भावार्थ
उसके मन में सङ्कोच, प्रेम और आनन्द इतना बढ गया कि वह खडा-खडा टकटकी लगाए भरतजी को देखता रहा। फिर धीरज धरकर भरतजी के चरणों की वन्दना करके प्रेम के साथ हाथ जोडकर विनती करने लगा-॥3॥
कुसल मूल पद पङ्कज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मङ्गल मोरें॥4॥
भावार्थ
हे प्रभो! कुशल के मूल आपके चरण कमलों के दर्शन कर मैन्ने तीनों कालों में अपना कुशल जान लिया। अब आपके परम अनुग्रह से करोडों कुलों (पीढियों) सहित मेरा मङ्गल (कल्याण) हो गया॥4॥