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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

करत दण्डवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेण्ट भइ प्रेमु न हृदयँ समाइ॥193॥

भावार्थ

दण्डवत करते देखकर भरतजी ने उठाकर उसको छाती से लगा लिया। हृदय में प्रेम समाता नहीं है, मानो स्वयं लक्ष्मणजी से भेण्ट हो गई हो॥193॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

भेण्टत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥
धन्य धन्य धुनि मङ्गल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥1॥

भावार्थ

भरतजी गुह को अत्यन्त प्रेम से गले लगा रहे हैं। प्रेम की रीति को सब लोग सिहा रहे हैं (ईर्षापूर्वक प्रशंसा कर रहे हैं)। मङ्गल की मूल ‘धन्य-धन्य’ की ध्वनि करके देवता उसकी सराहना करते हुए फूल बरसा रहे हैं॥1॥

लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सीञ्चा॥
तेहि भरि अङ्क राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥2॥

भावार्थ

(वे कहते हैं-) जो लोक और वेद दोनों में सब प्रकार से नीचा माना जाता है, जिसकी छाया के छू जाने से भी स्नान करना होता है, उसी निषाद से अँकवार भरकर (हृदय से चिपटाकर) श्री रामचन्द्रजी के छोटे भाई भरतजी (आनन्द और प्रेमवश) शरीर में पुलकावली से परिपूर्ण हो मिल रहे हैं॥2॥

राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुञ्ज समुहाहीं॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥3॥

भावार्थ

जो लोग राम-राम कहकर जँभाई लेते हैं (अर्थात आलस्य से भी जिनके मुँह से राम-नाम का उच्चारण हो जाता है), पापों के समूह (कोई भी पाप) उनके सामने नहीं आते। फिर इस गुह को तो स्वयं श्री रामचन्द्रजी ने हृदय से लगा लिया और कुल समेत इसे जगत्पावन (जगत को पवित्र करने वाला) बना दिया॥3॥

करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरेई॥
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥4॥

भावार्थ

कर्मनाशा नदी का जल गङ्गाजी में पड जाता है (मिल जाता है), तब कहिए, उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता? जगत जानता है कि उलटा नाम (मरा-मरा) जपते-जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गए॥4॥