01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि॥191॥
भावार्थ
(उसने कहा-) हे भाइयों! धोखा न लाना (अर्थात मरने से न घबडाना), आज मेरा बडा भारी काम है। यह सुनकर सब योद्धा बडे जोश के साथ बोल उठे- हे वीर! अधीर मत हो॥191॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुण्ड मुण्डमय मेदिनि करहीं॥1॥
भावार्थ
हे नाथ! श्री रामचन्द्रजी के प्रताप से और आपके बल से हम लोग भरत की सेना को बिना वीर और बिना घोडे की कर देङ्गे (एक-एक वीर और एक-एक घोडे को मार डालेङ्गे)। जीते जी पीछे पाँव न रखेङ्गे। पृथ्वी को रुण्ड-मुण्डमयी कर देङ्गे (सिरों और धडों से छा देङ्गे)॥1॥
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥
एतना कहत छीङ्क भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥2॥
भावार्थ
निषादराज ने वीरों का बढिया दल देखकर कहा- जुझारू (लडाई का) ढोल बजाओ। इतना कहते ही बाईं ओर छीङ्क हुई। शकुन विचारने वालों ने कहा कि खेत सुन्दर हैं (जीत होगी)॥2॥
बूढु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥3॥
भावार्थ
एक बूढे ने शकुन विचारकर कहा- भरत से मिल लीजिए, उनसे लडाई नहीं होगी। भरत श्री रामचन्द्रजी को मनाने जा रहे हैं। शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है॥3॥
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढा॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बडि हित हानि जानि बिनु जूझें॥4॥
भावार्थ
यह सुनकर निषादराज गुहने कहा- बूढा ठीक कह रहा है। जल्दी में (बिना विचारे) कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं। भरतजी का शील स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध करने में हित की बहुत बडी हानि है॥4॥