01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190॥
भावार्थ
(इस प्रकार श्री रामजी के लिए प्राण समर्पण का निश्चय करके) निषादराज विषाद से रहित हो गया और सबका उत्साह बढाकर तथा श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके उसने तुरन्त ही तरकस, धनुष और कवच माँगा॥190॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढावइ करषा॥1॥
भावार्थ
(उसने कहा-) हे भाइयों! जल्दी करो और सब सामान सजाओ। मेरी आज्ञा सुनकर कोई मन में कायरता न लावे। सब हर्ष के साथ बोल उठे- हे नाथ! बहुत अच्छा और आपस में एक-दूसरे का जोश बढाने लगे॥1॥
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी॥
सुमिरि राम पद पङ्कज पनहीं। भाथीं बाँधि चढाइन्हि धनहीं॥2॥
भावार्थ
निषादराज को जोहार कर-करके सब निषाद चले। सभी बडे शूरवीर हैं और सङ्ग्राम में लडना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों की जूतियों का स्मरण करके उन्होन्ने भाथियाँ (छोटे-छोटे तरकस) बाँधकर धनुहियों (छोटे-छोटे धनुषों) पर प्रत्यञ्चा चढाई॥2॥
अँगरी पहिरि कूँडि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं॥
एक कुसल अति ओडन खाँडे। कूदहिं गगन मनहुँ छिति छाँडे॥3॥
भावार्थ
कवच पहनकर सिर पर लोहे का टोप रखते हैं और फरसे, भाले तथा बरछों को सीधा कर रहे हैं (सुधार रहे हैं)। कोई तलवार के वार रोकने में अत्यन्त ही कुशल है। वे ऐसे उमङ्ग में भरे हैं, मानो धरती छोडकर आकाश में कूद (उछल) रहे हों॥3॥
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई॥
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥4॥
भावार्थ
अपना-अपना साज-समाज (लडाई का सामान और दल) बनाकर उन्होन्ने जाकर निषादराज गुह को जोहार की। निषादराज ने सुन्दर योद्धाओं को देखकर, सबको सुयोग्य जाना और नाम ले-लेकर सबका सम्मान किया॥4॥