01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग॥188॥
भावार्थ
कोई दूध ही पीते, कोई फलाहार करते और कुछ लोग रात को एक ही बार भोजन करते हैं। भूषण और भोग-विलास को छोडकर सब लोग श्री रामचन्द्रजी के लिए नियम और व्रत करते हैं॥188॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सई तीर बसि चले बिहाने। सृङ्गबेरपुर सब निअराने॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥1॥
भावार्थ
रात भर सई नदी के तीर पर निवास करके सबेरे वहाँ से चल दिए और सब श्रृङ्गवेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराज ने सब समाचार सुने, तो वह दुःखी होकर हृदय में विचार करने लगा-॥1॥
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह सङ्ग कटकाई॥2॥
भावार्थ
क्या कारण है जो भरत वन को जा रहे हैं, मन में कुछ कपट भाव अवश्य है। यदि मन में कुटिलता न होती, तो साथ में सेना क्यों ले चले हैं॥2॥
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकण्टक राजु सुखारी॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलङ्कु अब जीवन हानी॥3॥
भावार्थ
समझते हैं कि छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री राम को मारकर सुख से निष्कण्टक राज्य करूँगा। भरत ने हृदय में राजनीति को स्थान नहीं दिया (राजनीति का विचार नहीं किया)। तब (पहले) तो कलङ्क ही लगा था, अब तो जीवन से ही हाथ धोना पडेगा॥3॥
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥4॥
भावार्थ
सम्पूर्ण देवता और दैत्य वीर जुट जाएँ, तो भी श्री रामजी को रण में जीतने वाला कोई नहीं है। भरत जो ऐसा कर रहे हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है? विष की बेलें अमृतफल कभी नहीं फलतीं!॥4॥