186

01 दोहा

आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान॥186॥

भावार्थ

स्नेह के सुजान (प्रेम के तत्व को जानने वाले) भरतजी ने सब माताओं को आर्त (दुःखी) जानकर उनके लिए पालकियाँ तैयार करने तथा सुखासन यान (सुखपाल) सजाने के लिए कहा॥186॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी॥
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥1॥

भावार्थ

नगर के नर-नारी चकवे-चकवी की भाँति हृदय में अत्यन्त आर्त होकर प्रातःकाल का होना चाहते हैं। सारी रात जागते-जागते सबेरा हो गया। तब भरतजी ने चतुर मन्त्रियों को बुलवाया॥1॥

कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहि राजू॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥2॥

भावार्थ

और कहा- तिलक का सब सामान ले चलो। वन में ही मुनि वशिष्ठजी श्री रामचन्द्रजी को राज्य देङ्गे, जल्दी चलो। यह सुनकर मन्त्रियों ने वन्दना की और तुरन्त घोडे, रथ और हाथी सजवा दिए॥2॥

अरुन्धती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढि चले प्रथम मुनिराऊ॥
बिप्र बृन्द चढि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥3॥

भावार्थ

सबसे पहले मुनिराज वशिष्ठजी अरुन्धती और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथ पर सवार होकर चले। फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब के सब तपस्या और तेज के भण्डार थे, अनेकों सवारियों पर चढकर चले॥3॥

नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढि चढि चलत भईं सब रानी॥4॥

भावार्थ

नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर चित्रकूट को चल पडे। जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुन्दर पालकियों पर चढ-चढकर सब रानियाँ चलीं॥4॥