01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मन्त्रु भल कीन्ह।
सोक सिन्धु बूडत सबहि तुम्ह अवलम्बनु दीन्ह॥184॥
मूल
अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मन्त्रु भल कीन्ह।
सोक सिन्धु बूडत सबहि तुम्ह अवलम्बनु दीन्ह॥184॥
भावार्थ
हे भरतजी! वन को अवश्य चलिए, जहाँ श्री रामजी हैं, आपने बहुत अच्छी सलाह विचारी। शोक समुद्र में डूबते हुए सब लोगों को आपने (बडा) सहारा दे दिया॥184॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा॥
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥1॥
भावार्थ
सबके मन में कम आनन्द नहीं हुआ (अर्थात बहुत ही आनन्द हुआ)! मानो मेघों की गर्जना सुनकर चातक और मोर आनन्दित हो रहे हों। (दूसरे दिन) प्रातःकाल चलने का सुन्दर निर्णय देखकर भरतजी सभी को प्राणप्रिय हो गए॥1॥
मुनिहि बन्दि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं॥2॥
भावार्थ
मुनि वशिष्ठजी की वन्दना करके और भरतजी को सिर नवाकर, सब लोग विदा लेकर अपने-अपने घर को चले। जगत में भरतजी का जीवन धन्य है, इस प्रकार कहते हुए वे उनके शील और स्नेह की सराहना करते जाते हैं॥2॥
कहहिं परसपर भा बड काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥3॥
भावार्थ
आपस में कहते हैं, बडा काम हुआ। सभी चलने की तैयारी करने लगे। जिसको भी घर की रखवाली के लिए रहो, ऐसा कहकर रखते हैं, वही समझता है मानो मेरी गर्दन मारी गई॥3॥
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू॥4॥
भावार्थ
कोई-कोई कहते हैं- रहने के लिए किसी को भी मत कहो, जगत में जीवन का लाभ कौन नहीं चाहता?॥4॥