01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि॥181॥
मूल
राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि॥181॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी की माता बहुत ही सरल हृदय हैं और मुझ पर उनका विशेष प्रेम है, इसलिए मेरी दीनता देखकर वे स्वाभाविक स्नेहवश ही ऐसा कह रही हैं॥181॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना॥
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ॥1॥
मूल
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना॥
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ॥1॥
भावार्थ
गुरुजी ज्ञान के समुद्र हैं, इस बात को सारा जगत् जानता है, जिसके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है, वे भी मेरे लिए राजतिलक का साज सज रहे हैं। सत्य है, विधाता के विपरीत होने पर सब कोई विपरीत हो जाते हैं॥1॥
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अन्तहुँ कीच तहाँ जहँ पानी॥2॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी और सीताजी को छोडकर जगत् में कोई यह नहीं कहेगा कि इस अनर्थ में मेरी सम्मति नहीं है। मैं उसे सुखपूर्वक सुनूँगा और सहूँगा, क्योङ्कि जहाँ पानी होता है, वहाँ अन्त में कीचड होता ही है॥2॥
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू॥
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी॥3॥
भावार्थ
मुझे इसका डर नहीं है कि जगत् मुझे बुरा कहेगा और न मुझे परलोक का ही सोच है। मेरे हृदय में तो बस, एक ही दुःसह दावानल धधक रहा है कि मेरे कारण श्री सीता-रामजी दुःखी हुए॥3॥
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा॥
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी॥4॥
भावार्थ
जीवन का उत्तम लाभ तो लक्ष्मण ने पाया, जिन्होन्ने सब कुछ तजकर श्री रामजी के चरणों में मन लगाया। मेरा जन्म तो श्री रामजी के वनवास के लिए ही हुआ था। मैं अभागा झूठ-मूठ क्या पछताता हूँ?॥4॥