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01 दोहा

ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180॥

मूल

ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180॥

भावार्थ

जिसे कुग्रह लगे हों (अथवा जो पिशाचग्रस्त हो), फिर जो वायुरोग से पीडित हो और उसी को फिर बिच्छू डङ्क मार दे, उसको यदि मदिरा पिलाई जाए, तो कहिए यह कैसा इलाज है!॥180॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरञ्चि दीन्ह मोहि सोई॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बडाई॥1॥

मूल

कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरञ्चि दीन्ह मोहि सोई॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बडाई॥1॥

भावार्थ

कैकेयी के लडके के लिए संसार में जो कुछ योग्य था, चतुर विधाता ने मुझे वही दिया। पर ‘दशरथजी का पुत्र’ और ‘राम का छोटा भाई’ होने की बडाई मुझे विधाता ने व्यर्थ ही दी॥1॥

तुम्ह सब कहहु कढावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका॥
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही॥2॥

भावार्थ

आप सब लोग भी मुझे टीका कढाने के लिए कह रहे हैं! राजा की आज्ञा सभी के लिए अच्छी है। मैं किस-किस को किस-किस प्रकार से उत्तर दूँ? जिसकी जैसी रुचि हो, आप लोग सुखपूर्वक वही कहें॥2॥

मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई॥
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं॥3॥

भावार्थ

मेरी कुमाता कैकेयी समेत मुझे छोडकर, कहिए और कौन कहेगा कि यह काम अच्छा किया गया? जड-चेतन जगत्‌ में मेरे सिवा और कौन है, जिसको श्री सीता-रामजी प्राणों के समान प्यारे न हों॥3॥

परम हानि सब कहँ बड लाहू। अदिनु मोर नहिं दूषन काहू॥
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू॥4॥

भावार्थ

जो परम हानि है, उसी में सबको बडा लाभ दिख रहा है। मेरा बुरा दिन है किसी का दोष नहीं। आप सब जो कुछ कहते हैं सो सब उचित ही है, क्योङ्कि आप लोग संशय, शील और प्रेम के वश हैं॥4॥