01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥174॥
मूल
अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥174॥
भावार्थ
जो अनुचित और उचित का विचार छोडकर पिता के वचनों का पालन करते हैं, वे (यहाँ) सुख और सुयश के पात्र होकर अन्त में इन्द्रपुरी (स्वर्ग) में निवास करते हैं॥174॥
02 चौपाई
अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू॥
सुरपुर नृपु पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृतु सुजसु नहिं दोषू॥1॥
मूल
अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू॥
सुरपुर नृपु पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृतु सुजसु नहिं दोषू॥1॥
भावार्थ
राजा का वचन अवश्य सत्य करो। शोक त्याग दो और प्रजा का पालन करो। ऐसा करने से स्वर्ग में राजा सन्तोष पावेङ्गे और तुम को पुण्य और सुन्दर यश मिलेगा, दोष नहीं लगेगा॥1॥
बेद बिदित सम्मत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका॥
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥2॥
मूल
बेद बिदित सम्मत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका॥
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥2॥
भावार्थ
यह वेद में प्रसिद्ध है और (स्मृति-पुराणादि) सभी शास्त्रों के द्वारा सम्मत है कि पिता जिसको दे वही राजतिलक पाता है, इसलिए तुम राज्य करो, ग्लानि का त्याग कर दो। मेरे वचन को हित समझकर मानो॥2॥
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पण्डित केहीं॥
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं॥3॥
मूल
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पण्डित केहीं॥
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं॥3॥
भावार्थ
इस बात को सुनकर श्री रामचन्द्रजी और जानकीजी सुख पावेङ्गे और कोई पण्डित इसे अनुचित नहीं कहेगा। कौसल्याजी आदि तुम्हारी सब माताएँ भी प्रजा के सुख से सुखी होङ्गी॥
परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि॥
सौम्पेहु राजु राम के आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ॥4॥
भावार्थ
जो तुम्हारे और श्री रामचन्द्रजी के श्रेष्ठ सम्बन्ध को जान लेगा, वह सभी प्रकार से तुमसे भला मानेगा। श्री रामचन्द्रजी के लौट आने पर राज्य उन्हें सौम्प देना और सुन्दर स्नेह से उनकी सेवा करना॥4॥