172

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जती प्रपञ्च रत बिगत बिबेक बिराग॥172॥

मूल

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जती प्रपञ्च रत बिगत बिबेक बिराग॥172॥

भावार्थ

उस गृहस्थ का सोच करना चाहिए, जो मोहवश कर्म मार्ग का त्याग कर देता है, उस सन्न्यासी का सोच करना चाहिए, जो दुनिया के प्रपञ्च में फँसा हुआ और ज्ञान-वैराग्य से हीन है॥172॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बैखानस सोइ सोचै जोगू। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बन्धु बिरोधी॥1॥

मूल

बैखानस सोइ सोचै जोगू। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बन्धु बिरोधी॥1॥

भावार्थ

वानप्रस्थ वही सोच करने योग्य है, जिसको तपस्या छोडकर भोग अच्छे लगते हैं। सोच उसका करना चाहिए जो चुगलखोर है, बिना ही कारण क्रोध करने वाला है तथा माता, पिता, गुरु एवं भाई-बन्धुओं के साथ विरोध रखने वाला है॥1॥

सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥
सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाडि छलु हरि जन होई॥2॥

मूल

सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥
सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाडि छलु हरि जन होई॥2॥

भावार्थ

सब प्रकार से उसका सोच करना चाहिए, जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने ही शरीर का पोषण करता है और बडा भारी निर्दयी है और वह तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है, जो छल छोडकर हरि का भक्त नहीं होता॥2॥

सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥3॥

मूल

सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥3॥

भावार्थ

कोसलराज दशरथजी सोच करने योग्य नहीं हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है। हे भरत! तुम्हारे पिता जैसा राजा तो न हुआ, न है और न अब होने का ही है॥3॥

बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा॥4॥

मूल

बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा॥4॥

भावार्थ

हब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र और दिक्पाल सभी दशरथजी के गुणों की कथाएँ कहा करते हैं॥4॥